इज़राइल-फलस्तीन का मुद्दा
जहां-जहां ब्रिटिश हुकूमत या अंग्रेज़ी शासन था वहाँ वहाँ कुछ न कुछ विवाद आज भी चल रहा है। फिर बात भारत-पाकिस्तान की हो या इज़राइल-फलस्तीन का। इसलिए आज का यह लेख इज़राइल-फलस्तीन के बीच चल रहे संघर्ष के बारे में बात करता है।
क्या इज़राइल-फलस्तीन के दो राज्य का समाधान निकल सकता है
इस लेख में दो राज्य समाधान की प्रासंगिकता सहित इस संघर्ष में शामिल विभिन्न हितधारकों के हितों और आकांक्षाओं को भी रेखांकित करता है।
इज़राइल-फलस्तीन के विवाद को समझने से पहले आप सभी को बाल्फोर घोषणा को समझना होगा। क्योंकि इज़राइल-फलस्तीन के विवाद की कहानी इसी घोषण में छिपी हुई है।
जब प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो उसी समय ब्रिटेन ने बाल्फोर घोषणा के तहत फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर स्थापित करने का वादा किया था।इस समय फलस्तीन के इलाके पर ब्रिटेन का नियंत्रण हुआ करता था।
उस समय के ब्रिटिश विदेश मंत्री आर्थर बालफोर ने एक सीलबंद लिफाफे में एक घोषणापत्र बैरन लियोनेल वॉल्टर रॉथ्सचाइल्ड को भेजा था। बैरन लियोनेल का परिचय यही है कि वह उस दौर में ब्रिटेन में बसे यहूदी समाज के बड़े नेता माने जाते थे। यह घोषणा पत्र का बाद में अलग-अलग भाषा में अनुवाद भी किया गया।
बीबीसी हिन्दी ने इस पत्र का अनूदित रूप भी प्रस्तुत किया है। जिससे में यहूदी के लिए अलग देश की बात को बहुत ही स्पष्टता से रखा गया है। आर्थर जेम्स बालफोर के बारे में यदि आप की रूचि है तो आप विस्तार से पढ़ सकते हैं। लेकिन स्कॉटिश मूल के आर्थर जेम्स बालफोर साल 1902 से 1905 तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी रहे थे।ऐसा माना जाता है कि बालफोर एक इसाई ज़ायोनिस्ट व्यक्ति थे। इजराइल मुद्दे पर बालफोर की दिलचस्पी ओल्ड टेस्टामेंट ऑफ़ बाइबल में वर्णित यहूदियों के इतिहास में अधिक थी। लेकिन धर्म, भाषा विचार सभी का प्रयोग सिर्फ़ राजनीति के लिए होता है। बालफोर घोषणापत्र के समय यहूदी कुल जनसंख्या का लगभग 6% थे।
संयुक्त राष्ट्र विभाजन योजना
इसके बाद एक एक और विभाजन योजना सामने आया जिसे संयुक्त राष्ट्र विभाजन योजना के नाम से जानते है। जिसके तहत 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने संकल्प 181 अपनाया था। जिसके अंतर्गत 55 प्रतिशत भूमि यहूदियों को दिया गया और शेष 45 प्रतिशत भूमि अरबों को प्रदान की गई थी।
जेरूसलम अंतराष्ट्रीयकृत क्षेत्र से इज़राइल की राजधानी बनने तक
जेरूसलम को एक अलग अंतराष्ट्रीयकृत क्षेत्र घोषित किया गया था। किंतु इसके बाद भी इस क्षेत्र में स्थिति सामान्य नहीं हुई। परिणाम पहला अरब-इज़राइल युद्ध (1948) के रूप में दुनिया के सामने आई। वर्ष 1949 में इजराइल की जीत के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ था। हार का बदला लेने के लिए अरब जगत तैयारी में लग गया। फिर उन्नीस साल बाद दूसरा छह दिवसीय युद्ध 1967 में हुआ।
1967 के इस युद्ध में एक तरफ जहां इजराइल था तो वही दूसरी तरफ सीरिया और मिस्र, जॉर्डन और इराक था। इन देशों के बीच दूसरा छह दिवसीय युद्ध शुरू हो गया।
इसके बाद दकैम्प डेविड एकॉर्ड्स (1979)
1979 में, शांति वार्ता के बाद, मिस्र और इज़राइल के प्रतिनिधियों ने कैंप डेविड समझौते पर हस्ताक्षर किए।
यह एक शांति संधि था जिसने मिस्र और इज़राइल के बीच तीस साल से चल रहे संघर्ष को समाप्त कर दिया।
पुनः पहला इंतिफ़ादा (1987) और ओस्लो I और ओस्लो II समझौता 1993/1995 के रूप में सामने आया।
1993 के ओस्लो I समझौते ने जहां संघर्ष में मध्यस्थता की वही इसने फिलिस्तीनियों को वेस्ट बैंक और गाजा में खुद पर शासन करने के लिए एक रूपरेखा भी प्रस्तुत कर दी और नव स्थापित फलस्तीन प्राधिकरण और इज़राइल की सरकार के बीच पारस्परिक मान्यता को सक्षम किया।
1995 के ओस्लो II समझौते ने ओस्लो I समझौते का अधिक विस्तार किया। जिसमें ऐसे भी प्रावधान शामिल किए गए जिनके तहत वेस्ट बैंक के 6 शहरों और 450 कस्बों से इज़राइल की पूर्ण वापसी अनिवार्य थी। जो युद्ध के दौरान इज़राइल द्वारा हड़प लिया गया था।
जैसा कि आप जानते है यरूशलम यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों का पवित्र स्थल है इसलिए भविष्य में होने वाले विवाद को देखते हुए जेरूसलम को एक अलग अंतराष्ट्रीयकृत क्षेत्र घोषित किया गया था। लेकिन बाद में इज़राइल ने इसे अपना राजधानी घोषित कर दिया। जिसे वर्तमान में भी संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता नहीं मिला है।
इज़राइल-फलस्तीन के बीच चुनौतियाँ –
यह घनी आबादी वाला क्षेत्र है जहां विस्तार के पर्याप्त क्षेत्र उपलब्ध नहीं है।
इज़राइल द्वारा कब्जे वाले क्षेत्रों में इजरायली बस्ती बसाई गई जिससे यह विवाद सुलझना मुश्किल हो गया है।
यरूशलेम को इज़राइल की राजधानी घोषित करना जिससे इज़राइल-फलस्तीन के बीच और संघर्ष तेज हो गया। यह भी देखा गया है इजराइल के रुख में बदलाव होता गया।
लेख का निष्कर्ष क्या हो सकता है?
फलस्तीन को अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत एक राज्य के रूप में अधिकारों के साथ-साथ मान्यता मिलनी चाहिए।
फ़िलिस्तीनियों को खुद पर शासन या स्वराज स्थापित करने की सभी शक्तियां दी जाएंगी लेकिन ऐसी कोई भी शक्ति नहीं दी जाएगी जो इज़राइल को भविष्य में धमकी दे सके या इज़राइल पर हमला कर सके।
साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका की इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।जो गैर-सैन्यीकृत गाजा के साथ दो-राज्य समाधान के मुद्दा को सुलझाए। साथ ही पुरानी बातों के भूल कर आगे बढ़ने से होगा। गाजा के पुनर्निर्माण में उदारवादी अरब देशों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी। यदि किया जाता है तो संयुक्त राज्य अमेरिका और इज़राइल ईरान को अलग-थलग रखने में सफल हो पायेंगे।
अरब राज्य को भी अरब स्प्रिंग के अनुभव के बाद कट्टरपंथी तत्वों से रहित एक पुनर्जीवित फलस्तीन राज्य के निर्माण में भूमिका निभानी चाहि।
साथ ही अब्राहम समझौते की आगे की सीख को शांतिपूर्ण और सहयोगात्मक भविष्य के लिए दोहराया जा सकता है।